औरंगज़ैब का न्याय - एक पीड़ित लड़की के लिए {folk-lore -लोक-साहित्य}
औरंगजेब की हुकूमत में काशी बनारस में एक पंडित की लड़की थी जिसका नाम शकुंतला था, उस लड़की को एक मुसलमान जाहिल सेनापति ने अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा, और उसके बाप से
कहा के तेरी बेटी को डोली में सजा कर मेरे महल पे 7 दिन में भेज देना....
पंडित ने यह बात अपनी बेटी से कही, उनके पास कोई रास्ता नहीं था और पंडित से बेटी ने कहा के 1 महीने का वक़्त ले लो कोई भी रास्ता निकल जायेगा,पंडित ने सेनापति से जाकर कहा कि, “मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं के मैं 7 दिन में सजाकर लड़की को भेज सकूँ, मुझे महीने का वक़्त दो.” सेनापति ने कहा “ठीक है! ठीक महीने के बाद भेज देना”
पंडित ने अपनी लड़की से जाकर कहा “वक़्त मिल गया है अब” लड़की ने मुग़ल शहजादे का लिबास पहना औरअपनी सवारी को लेकर दिल्ली की तरफ़ निकल गई, कुछ दिनों के बाद दिल्ली
पहुँची, वो दिन जुमे का दिन था, और जुमे के दिन हज़रत औरंगजेब आलमगीर नमाज़ के बाद जब मस्जिद से बहार निकलते तो लोग अपनी फरियाद एक चिट्ठी में लिख कर मस्जिद की सीढियों के दोनों तरफ़ खड़े रहते।
हज़रत औरंगजेब वो चिट्ठियाँ उनके हाथ से लेते जाते, और फिर कुछ दिनों में फैसला (इंसाफ) फरमाते, वो लड़की (शकुंतला) भी इस क़तार में जाकर खड़ी हो गयी, उसके चहरे पे नकाब था,
और लड़के का लिबास (ड्रेस) पहना हुए थी, जब उसके हाथ से चिट्ठी लेने की बारी आई तब हज़रत औरंगजेब ने अपने हाथ पर एक कपडा डालकर उसके हाथ से चिट्ठी ली...
तब वो बोली महाराज!
मेरे साथ यह नाइंसाफी क्यों? सब लोगों से आपने सीधे तरीके से चिट्ठी ली और मेरे पास से हाथों पर कपडा रख कर ? तब हज़रत औरंगजेब आलमगीर ने फ़रमाया के इस्लाम में ग़ैर मेहरम (पराई औरतों) को हाथ लगाना भी
हराम है।
और मैं जानता हूँ तू लड़का नहीं लड़की है, शकुंतला बादशाह के साथ कुछ दिन तक ठहरी और अपनी फरियाद सुनाई, बादशाह हज़रत औरंगजेब आलमगीर ने उससे कहा “बेटी! तू लौट जा तेरी डोली सेनापति के महल पहुँचेगी अपने वक़्त पर ”
शकुंतला सोच में पड गयी के यह क्या? वो अपने घर लौटी और उसके बाप पंडित ने पूछा क्या हुआ बेटी? तो वो बोली एक ही रास्ता था मै हिन्दोस्तान के बादशाह के पास गयी थी, लेकिन उन्होंने भी ऐसा ही कहा कि डोली उठेगी, लेकिन मेरे दिल में एक उम्मीद की किरण है, वो ये है के मैं जितने दिन वहाँ रुकी बादशाह ने मुझे 15 बार बेटी कह कर पुकारा था,और एक बाप अपनी बेटी की इज्ज़त नीलाम नहीं होने देगा।
फिर वह दिन आया जिस दिन शकुंतला की डोली सजधज के सेनापति के महल पहुँची,
सेनापति ने डोली देख के अपनी अय्याशी की ख़ुशी फकीरों को पैसे लुटाना शुरू किया।
जब पैसे लुटा रहा था तब एक कम्बल-पोश फ़क़ीर जिसने अपने चेहरे पे कम्बल ओढ रखा था,उसने कहा “मैं ऐसा-वैसा फकीर नहीं हूँ, मेरे हाथ में पैसे दे” उसने हाथ में पैसे दिए और उन्होंने अपने मुह से कम्बल हटाया तो सेनापति देखकर हक्का बक्का रह गया क्योंकि उस कंबल में कोई फ़क़ीर नहीं बल्कि हज़रत औरंगजेब आलमगीर खुद थे।
उन्होंने कहा के तेरा एक पंडित की लड़की की इज्ज़त पे हाथ डालना मुसलमान हुकूमत पे दाग लगा सकता है, और आप हज़रत औरंगजेब आलमगीर ने इंसाफ फ़रमाया 4 हाथी मंगवाकर सेनापति के दोनों हाथ और पैर बाँध कर अलग अलग दिशा में हाथियों को दौड़ा दिया गया,और सेनापति को चीर दिया गया, फिर आपने पंडित के घर पर एक चबूतरा था उस चबूतरे के पास दो रकात नमाज़ नफिल शुक्राने की अदा की, और दुआ कि के, “ऐ अल्लाह! मैं तेरा शुक्रगुजार हूँ, के तूने मुझे एक ग़ैर इस्लामिक लड़की की इज्ज़त बचाने के लिए, इंसाफ करने के लिए चुना।
फिर हज़रत औरंगजेब आलमगीर ने कहा बेटी! ग्लास पानी लाना, लड़की पानी लेकर आई, तब आपने फ़रमाया कि: "जिस दिन दिल्ली में मैंने तेरी फरियाद सुनी थी उस दिन से मैंने क़सम खाई थी के जब तक तेरे साथ इंसाफ नहीं होगा पानी नहीं पिऊंगा "
तब शकुंतला के बाप और काशी बनारस के दूसरे हिन्दू भाइयों ने उस चबूतरे के पास एक मस्जिद तामीर की जिसका नाम “धनेडा की मस्जिद” रखा गया, और पंडितों ने ऐलान किया के ये बादशाह औरंगजेब आलमगीर के इंसाफ की ख़ुशी में हमारी तरफ़ से इनाम है, और सेनापति को जो सजा दी गई वो इंसाफ़एक सोने की तख़्त पर लिखा गया था जो आजभी धनेडा की मस्जिद में मौजुद है।
हज़रत औरंगज़ेब काशी बनारस की एक ऐतिहासिक मस्जिद (धनेडा की मस्जिद) यह एक ऐसा इतिहास है जिसे पन्नो से तो हटा दिया गया है लेकिन निष्पक्ष इन्सान और हक़ परस्त लोगों के दिलो से चाहे वो किसी भी कौम का इन्सान हो मिटाया नहीं जा सकता, और क़यामत तक इंशा अल्लाह! मिटाया नहीं जा सकेगा।
Source : https://kohraam.com/readers-opinion/justice-of-hazrat-aurangjeb-aalamgeer-55573.html Tanveer Tyagi
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